Monday, April 22, 2013

किताब को कभी खत्म नहीं किया जा सकता


किताब को कभी खत्म नहीं किया जा सकता

वभारत टाइम्स | Apr 21, 2013, 02.17AM I

अमोस ओज, मशहूर इस्त्राइली लेखक

हमारे पास सिर्फ एक ही चीज इफरात में थी, और वह थी- किताबें। हर जगह किताबें। दीवारों पर। दरीचों पर। गलियारे में। रसोई में। घर में घुसते ही किताबें। हर खिड़की पर रखी हुई किताबें। घर के हर कोने में भरी हुईं हजारों किताबें। मुझे ऐसा लगता था, लोग आएंगे और चले जाएंगे, पैदा होंगे और मर जाएंगे, लेकिन किताबें हमेशा-हमेशा के लिए होती हैं। जब मैं छोटा था, तो मेरा सपना था, बड़ा होकर मैं एक किताब बन जाऊंगा। लेखक नहीं बनूंगा, किताब बनूंगा। लोगों को चींटियों की तरह मारा जा सकता है। लेखकों को मारना भी कोई मुश्किल काम नहीं, लेकिन किताबों को नहीं। आप कितना भी योजनबद्ध तरीके से किसी किताब को खत्म कर लेने की कोशिश करें, एक संभावना हमेशा बची रहेगी कि उसकी कोई एक प्रति दुनिया की किसी न किसी लाइब्रेरी के एक कोने में जिंदा बची हुई है।
मेरे बचपन में ऐसा कई बार हुआ कि त्योहार के दौरान भी घर में खाने के लिए पैसे न होते। ऐसे में मां, पिताजी की ओर कातर निगाहों से देखती। पिताजी उसका देखना समझ जाते कि अब कुर्बानी देने का वक्त आ गया है। वह किताबों की आलमारी की तरफ बढ़ जाते। पिताजी नैतिक व्यक्ति थे। उन्हें पता था कि किताबों से ज्यादा अहम रोटी होती है और रोटी से भी ज्यादा अहम अपने बच्चे की खुशी। मुझे याद है, जब वह अपने हाथों में अपनी कुछ किताबें दबाकर सेकंड हैंड बुकशॉप की तरफ जा रहे थे, उन्हें बेच देने के लिए, तब उनकी पीठ कुबड़ों की तरह झुक गई थी। जब अब्राहम अपने बेटे आइजक की कुर्बानी देने के लिए उसे कंधे पर उठा मोरा की पहाड़ियों की तरफ जा रहा होगा, तब उसकी पीठ भी इसी तरह झुकी हुई होगी।
जब मैं छह साल का हुआ, तो पिता ने अपनी आलमारी का एक छोटा-सा हिस्सा मुझे दे दिया और कहा, यहां अपनी किताबें रख सकते हो। मुझे याद है, मेरी किताबें जो मेरी पलंग के पास यूं ही पड़ी रहती थीं, उन सबका अपनी गोद में उठाकर मैंने बड़े करीने से उनकी आलमारी में सेट किया था। मैंने उस समय बहुत खुशी महसूस की थी। जो लोग आलमारी में अपनी किताबें खड़ी करके लगा सकते हैं, वे बड़े हो चुके होते हैं। बच्चे तो अपनी किताबें आड़ी बिछाकर रखते हैं। मैं बड़ा हो गया था। मैं पिता की तरह हो गया था।

खैर, रोटी खरीदने के लिए किताब बेचने निकले पिता आमतौर पर एक-दो घंटे में लौट आते थे। तब उनके पास किताबें न होतीं, उनकी बजाय भूरे लिफाफे में ब्रेड, अंडे, चीज और खाने के दूसरे सामान होते। लेकिन कभी-कभार जब वह लौटते, अपनी कुर्बानियों के बावजूद उनके चेहरे पर एक चौड़ी मुस्कान होती। ऐसे समय उनके पास उनकी प्यारी किताबें न होतीं और वह खाने का कोई सामान भी ना लाते। वह घर से ले गई अपनी किताबें तो बेच देते थे, लेकिन उसी समय कुछ दूसरी नई किताबें खरीद लेते थे। उन्हें रद्दी की दुकान में कुछ ऐसी अनमोल किताबें मिल जातीं, जिन्हें पढ़ने का उनका बरसों पुराना सपना होता। वह उस मौके को हाथ से जाने न देते और बेकाबू होकर मिले हुए पैसों से वे सारी किताबें खरीद लेते।
ऐसे समय मेरी मां उन्हें माफ कर देती थी, मैं भी।


(आत्मकथा 'अ टेल ऑफ लव ऐंड डार्कनेस' से, अनुवाद : गीत चतुवेर्दी)